
मिथिला का दोदिवसीय त्योहार, जहां बासी भोजन, दान और शीतलता से मनाया जाता है नववर्ष का स्वागत
मिथिला की सांस्कृतिक विरासत में रचा-बसा ‘जुड़ शीतल’ पर्व सिर्फ एक त्योहार नहीं, बल्कि जीवन, प्रकृति और परंपरा को सम्मान देने का एक आध्यात्मिक प्रयास है। इस पर्व में न चूल्हा जलता है, न ही ताजे पकवान बनते हैं — बल्कि बासी भोजन को भी वही मान-सम्मान दिया जाता है जो किसी प्रसाद को मिलता है। घर की निर्जीव वस्तुएं, पेड़-पौधे और वातावरण तक इस उत्सव के हिस्सेदार बनते हैं।
परंपराओं से जुड़ा है ‘जुड़ शीतल’ का हर पहलू
यह पर्व हर साल 14 और 15 अप्रैल को मनाया जाता है। पहला दिन चैत्र संक्रांति का होता है, और अगला दिन वैशाख मास का, इसलिए इसे दोंमासी पर्व भी कहा जाता है। पहले दिन मिट्टी के घड़े को तुलसी चौरा में बांधकर उसमें कुश डालकर पानी टपकाया जाता है। सत्तू, जौ, गुड़ और पानी का दान किया जाता है, जिसे “सतुआन” भी कहा जाता है।
‘जुड़ायल रहु’ की शुभकामना और बड़ों का आशीर्वाद
दूसरे दिन सुबह वृद्ध महिला परिवार के सभी सदस्यों के सिर पर पानी डालती हैं और कहती हैं “जुड़ायल रहु” — जिसका अर्थ होता है “हमेशा शीतल रहो, सुखी रहो।” इस परंपरा के जरिए न केवल अपनों के लिए शुभकामनाएं दी जाती हैं, बल्कि गर्मी से राहत देने के लिए प्रकृति को भी धन्यवाद किया जाता है।
बासी भोजन, सादगी और स्वाद का संगम
इस दिन बासी बोरी-भात, दही, गुड़, सत्तू, आम की चटनी, सहजन की सब्जी और मिट्टी के घड़े का ठंडा पानी खाया-पिया जाता है। मांसाहारी लोग मछली भी खाते हैं और कहीं-कहीं तालाबों में मछली पकड़ने की भी परंपरा है। सामर्थ्यवान लोग इस पूरे महीने चना और गुड़ का दान करते हैं।
प्रकृति को समर्पित त्योहार
इस पर्व का मूल उद्देश्य है — प्रकृति के साथ तालमेल। चूल्हा न जलाकर एक दिन पर्यावरण को विश्राम दिया जाता है। पेड़ों को पानी देकर उन्हें राहत पहुंचाई जाती है। मिट्टी से जुड़े खेल, कीचड़ होली और आपसी मेलजोल इस पर्व को खास बनाते हैं।